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१० अप्रैल, १९५७
''इन खेल आदिका दूसरा अमूल्य लाभ है उस मनोभावकी वृद्धि जिसे हम जिंदादिल या खेलाड़ी मिजाज कहते हैं । इस- के अंदर, प्रसन्नता, सहनशीलता, सबकी सुविधा-असुविधाका बिचार, प्रतियोगियों और प्रतिस्पर्द्धियोके प्रति समुचित और मैत्रीका भाव, आत्म-संयम, खेलके नियमोंका सावधानीके साथ पालन, ईमानदारीके साथ खेलना और अनुचित उपायोंका उपयोग न करना, उदास हुए बिना और अपने सफल प्रतिद्वन्द्वियोंके प्रति क्रोध या कुभाव रखे बिना हार या जीतको समान भावसे ग्रहण करना, खेलमें नियुक्त जज, पंच था 'रेफरी'के निर्णयको सच्चाईके साथ स्वीकार करना आदि गुण
७६ शामिल हैं, ये सब गुण केवल खेलके लिये ही नहीं, वरन् साधारण जीवनके लिये भी उपयोगी हैं और इनके विकासमें जो सहायता खेल-कूदके द्वारा प्राप्त होती है, वह प्रत्यक्ष और बहुमूल्य होती है । यदि ये गुण केवल व्यक्तिके जीवनमें ही नहीं, बल्कि राष्ट्र के जीवनमें और अंतर्राष्ट्रीय जीवनमें भी, जहां आजकल इनकी विरोधी प्रवृत्तियों ही अत्यंत प्रबल हो गयी है, अधिक व्यापक रूपमें विकसित किये जाये तो हमारे इस दुःखपूर्ण जगत्का जीवन अधिक निर्बाध हो सकता है और जिस सामंजस्य और मित्रताकी हमें आज अत्यंत आवश्यकता है उसकी संभावना भी अधिक हो सकती है... यहांतक कि मनकी उच्चतम और पूर्णतम शिक्षा भी शारीरिक शिक्षाके बिना पर्याप्त नहीं है... जिस राष्ट्रमें ये सब गुण अधिक-से- अधिक मात्रामें होंगे वही संभवतः विजय, सफलता और गौरव प्राप्त करनेमें सबसे अधिक सफल होगा, साथ ही उस एकता- के लानेमें और उस अधिक सुसमंजस विश्व-व्यवस्थाके धानानेमे भी सबसे अधिक समर्थ होगा जिसकी ओर हम मानवजाति- के भविष्यके लिये आशाभरी निगाहसे देखते हैं ।
(श्रीअरविंद, ३० दिसम्बर १९४८ का संदेश')
मधुर मां, खेलोंके साम्मुख्य (टूर्नामेंट) मे कई बुरी भावना- से खेलते है, वे जीतनेके लिये दूसरोंको हानि पहुंचानेकी चेष्टा करते है । हमने देखा है कि छोटे बच्चेतक यही बात सीख रहे है । इससे कैसे बचा जाय?
बच्चोंको जो चीजों सबसे बढ़कर हानि पहुंचाती है ३ हैं अज्ञान और बुरा उदाहरण । इसलिये यह अच्छा होगा कि दलोंके नेता रवेल शुरू करनेके पहले अपने अधीन सब बच्चोंको इकट्ठा करके उन्हें वे सब बातें बतायें जो श्रीअरविंदने यहां कही है और उनकी व्याक्या भी करें जैसी कि हमने 'खिलाड़ीके नियम' तथा 'आदर्श बालक' अथवा 'बच्चोंके लिये चिरस्मरणीय बातें' नामक छोटी-छोटी पुस्तिकाओंमें दी है । ये बातें बच्चोंके सामने
'यह ''संदेश'' श्रीअरविदने. आश्रमकी शारीरिक शिक्षण पत्रिकाके प्रथम अंक (फरवरी १९४८) के लिये दिया था । यह उनकी 'अतिमानसिक अभिव्यक्ति' पुस्तककी भूमिकाका काम करता है । ७७ प्रायः ही दोहरायी जानी चाहिये । साथ ही उन्हें बुरी संगति. और बुरे साथियोंसे बचनेके लिये चेतावनी भी देनी चाहिये, इसकी चर्चा मैं पहले किसी कक्षामें कर चुकी हू ।
और सबसे बड़ी बात यह है कि उनके सामने अच्छा उदाहरण रखा जाय... । जो तुम उन्हें बनाना चाहते हो वह स्वयं बनो । नि:स्वार्थता, धैर्य, आत्म-संयम, सब परिस्थितियोंमें सदा प्रसन्न बने रहनेकी वृत्ति, अपनी तुच्छ वैयक्तिक नापसन्दगियोपर विजय, एक प्रकारकी स्थिर सदिच्छा, दूसरेकी कठिनाइयोंको समझना - इन चीजोंका उदाहरण उनके सामने रखो । और अपने स्वभावमें ऐसी समता रखो कि बच्चे तुमसे भय न मानें, क्योंकि दंडका भय ही बच्चोंको छल करना, झूठ बोलना, यहांतक कि बुरा काम करना सिखाता है । यदि बे यह समझें कि वे तुमपर विश्वास कर सकते हैं तो वे तुमसे कुछ छिपायेंगे नहीं और तब तुम उन्हें आज्ञाकारी और सच्चा बनानेमें सहायता कर सकोगे । सबसे महत्त्वपूर्ण बात है अच्छा उदाहरण रखना । श्रीअरविंद इन्ही चीजोंकी चर्चा करते है । - सब परिस्थितियोंमें सदा बने रहनेवाला स्थिर, प्रसन्न मनोभाव, आत्म-विस्मरण, अर्थात् अपनी छोटी-छोटी कठिनाइयोंको दूसरोंपर न डालना, जब तुम थके हुए हो या तुम्हारी तबीयत ठीक न हो तब भी बदमिजाज न होना, धैर्य न खोना । और यह एक पर्याप्त पूर्णताकी, एक आत्म-संयमकी मांग करता है जो उपलब्धिके मार्गपर एक बड़ा भारी पग है । यदि तुम एक सच्चे नेता बननेकी शर्तें पूरी कर लो,. चाहे वह बच्चोंके एक छोटे-से दलका नेता बनना ही क्यों न हो, तो तुम योग साधित करनेके लिये जिस अनु- शासनकी आवश्यकता है, उसमें काफी आगे बढ़ चुके होंगे ।
तुम्हें समस्याको इसी दृष्टिसे देखना है, आत्म-प्रभुत्व, आत्म-नियंत्रण और सहनशीलताकी दृष्टिसे, जो तुम्हारी वैयक्तिक स्थितिको तुम्हारे दल या सामूहिक कार्यपर प्रतिक्रिया करनेकी अनुमति नहीं देती । अपने-आपको भूल जाना सच्चा नेता बननेकी एक अत्यंत आवश्यक शर्त है : अपना कोई स्वार्थपूर्ण हित न रखना, अपने लिये कुछ न चाहना, बल्कि अपनेपर निर्भर दलके हितको, संपूर्ण वस्तुके, समग्र वस्तुके हितको ध्यानमें रखना; इसी ध्येयको सामने रखकर कार्य करना और अपने कार्यसे किसी प्रकारका वैयक्तिक लाभ न चाहना ।
इस प्रकार, एक छोटे दलका नेता एक बहुत बड़े दलका, एक राष्ट्रका उत्तम नेता बन सकता है और एक सामूहिक भूमिकाके लिये तैयार हो सकता है । यह एक ऐसा शिक्षण है जिसका बहुत अधिक महत्व है और वस्तुत: इसीके लिये हमने यह प्रयत्न किया है और कर रहे है कि ज्यों ही
७८ संभव हो प्रत्येकको एक जिम्मेदारीका काम, छोटा या बड़ा, दिया जाय जिससे वह सच्चा नेता बनना सीख सके ।
सच्चा नेता बननेके लिये यह जरूरी है कि व्यक्ति पूरा निःस्वार्थ बने, जहांतक हो सकें अपने अंदरसे सभी स्वाभिमान और स्वार्थपूर्ण प्रवृत्तियोंको मिटा दे । नेता बननेके लिये व्यक्तिको अपने अहंभावको जीतना जरूरी है और अपने अहंपर विजय पाना योग करनेके लिये पहला अनिवार्य पग है । इस तरह रवेल भगवान्को पानेमें प्रभावशाली सहायता कर सकते हैं ।
बहुत कम लोग इसे समझते है, और साधारणत: जो लोग खेलोंके इस बाह्य अनुशासनके, स्थूल भौतिक उपलब्धिपर इस एकाग्रताके विरोधी हैं उनमें' अपनी भौतिक सत्तापर नियंत्रणका सर्वथा अभाव है । और श्री- अरविंदका पूर्णयोग साधित करनेके लिये अपने शरीरपर नियंत्रण होना सबसे पहला अनिवार्य पग है । जो लोग शारीरिक शिक्षणकी प्रवृत्तियोंको घृणाकी दृष्टिसे देखते है वे पूर्णयोगका सच्चे राधेपर एक पग भी न चल सकेंगे जबतक कि पहले इस घृणासे छुटकारा नही पा लेते । शरीरपर सब प्रकारका नियंत्रण होना एक अनिवार्य आधार है । जो शरीर तुमपर शासन करता है वह शत्रु है, यह एक अव्यवस्था है जिसे तुम स्वीकार नहीं कर सकते । मनकी आलोकित संकल्प-शक्तिका ही शरीरपर शासन होना चाहिये, यह नही कि शरीर मनपर अपना नियम लागू करे । जब व्यक्ति जानता हो कि अमुक चीज बुरी है तो उसे न करनेके लिये समर्थ होना चाहिये और जब वह किसी चीजको चरितार्थ करना चाहे तो कर सकें, पग-पगपर अपनी अयोग्यता, दुर्भावना या शरीरके असहयोगके कारण उसे रुकना न पड़े । और इसके लिये शारीरिक अनुशासनका अभ्यास और अपने घरका मालिक बनना जरूरी है ।
ध्यानमें निमग्न रहना और अपनी तथाकथित महानताकी ऊंचाईसे भौतिक वस्तुओंको देखना बड़ा सुहावना है, परंतु जो अपने घरका स्वामी नहीं, वह दास ही है ।
(मौन)
उस ओर, तुममेंसे किसीके पास कोई प्रश्न नहीं? नहीं?
मां, शारीरिक शिक्षणकी प्रवृत्तियोंके बारेमें एक समस्या यह है कि किसी एक खेल या एक प्रवृत्तिमें पूर्णता प्राप्त करने- के लिये हमें केवल उसी खेल मा प्रवृत्तिपर ही अपने-आपको केंद्रित कर देनेकी आवश्यकता होती है ।
७९ यह बात बिलकुल गलत है । पत्रिकाके पहले ही अंकमें मैंने इस बातको पूरे विस्तारके साथ समझाया है । ' यह एकदम गलत है । वस्तुत: जिसने अपने ऊपर नियंत्रण पा लिया है और एकाग्रताकी शक्तिका विकास कर लिया है वह एकाग्रताकी इस शक्तिका प्रयोग देखनेमें अत्यंत भिन्न, यहां- तक कि कभी-कभी तो बिलकुल विरोधी चीजोंपर भी कर सकता है और उसे इन चीजोंको इस प्रकार कर सकना चाहिये कि एक चीज दूसरीको नुकसान न पहुंचाये ।
इसमें विचारणीय प्रश्न केवल समयका रह जाता है, जिसे दो तरहसे हल किया जा सकता है : प्रथम तो अपने जीवनको आलोकित और व्यव- स्थित ढंगसे संगठित किया जाय और दूसरे समयको व्यर्थ जानेसे रोका जाय, अधिकतर लोग अपना समय निरर्थक प्रवृत्तियोंमें गंवा देते है -- यदि ये निरर्थक प्रवृत्तियों गायब हो जायं तो सारे संसारके लिये एक आशीर्वाद होगा -- और इन प्रवृत्तियोंमें मैं पहले नंबरपर जिसे रखती हू वह है गप्पें मारना, अर्थात् अपने मित्रोंसे, अपने साथियोंसे निरर्थक. बातें करना... सभी प्रवृत्तियोंमें । बातचीतमें जो समय खराब जाता है वह बहुत ज्यादा होता है । जहां एक शब्द पर्याप्त होता है, तुम पचास बोलते हों और केवल यही समयकी एक ही क्षति नहीं है..... । वस्तुत: जब किसीको समयकी कमी प्रतीत होती है तो इसका मतलब होता है कि वह अपने जीवनको व्यवस्थित करना नहीं जानता । अवश्य ही, ऐसे लोग भी है जो बहुत सारे काम करते हैं पर वह भी यह दिखाता है कि जीवनमें व्यवस्था- का अभाव है ।
सच्ची व्यवस्थामें प्रत्येक चीजको उसी अनुपातमें स्थान प्राप्त होता है जितना उसे चाहिये । तुम सब अच्छी तरह जानते हो कि दस-पंद्रह मिनट- के सुसमन्वित व्यायामसे तुम शरीरको उसके लिये आवश्यक सब शिक्षण दे सकते हों । यह तुम्हें यहां सिखाया गया है और तुम्हारे सामने प्रमाणित भी किया जा चुका है । शरीरकी समुचित समतोलताके लिये इतना पर्याप्त है । अवश्य ही, रवेलोंसे और भी कई प्रकारकी योग्यताएं प्राप्त होती है, परंतु तुम प्रतिदिन, जैसा कि मैं जानती हू, अधिक-सें-अधिक एक घंटेसे ज्यादा नहीं खेलते और दिन-भरमें इतना समय देना अधिक नहीं है।
यह एक बहाना है । अपने जीवनको व्यवस्थित करो और तुम देखोगे कि प्रत्येक चीजके लिये तुम्हारे पास अवकाश है........ यहांतक कि एक उत्तम विद्यार्थी बननेके लिये भी ।
'शारीरिक। शिक्षण पत्रिका, अप्रैल १९४९, ''एकाग्रता गैर विक्षेप'' ।
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